ज़िंदगी एक सफर है , यह हम सब जानते हैं पर शायद समझते कम ही लोग हैं , क्यूंकि अगर समझते तो इतने बाबाओं के प्रवचन सुन ने की आव्यशकता नहीं होती। एक भगवत गीता और जीवन के कई पड़ाव ही काफी थे .
सब को अलग परिस्थियों मे भिन भिन तजुर्बे होते हैं और हम इस ज़िंदगी के सफर मे आगे बढ़ते हुए ज़िंदगी से सीखते जाते हैं.
इस सफर से हम तभी सीख ले सकते हैं जब हम इस दौरान आये हुए हर संकट से , हर चैलेंज के दौरान हमने आत्मिक अवलोकन किया हो , अगर नहीं किया है तो हमारा ज्ञान बड़ा ऊपरी स्तर का होगा.
हम सब कभी न कभी बीमार ज़रूर पड़े होंगे , बीमारी भी तो हमारे इस सफर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है , एक चैलेंज है। सिर्फ शारीरक चैलेंज ही नहीं बल्कि मानसिक भी, भौतिक भी , आत्मिक भी।
यही कारण है की जब हम बिमार शरीर लिए पड़े हों , कष्ट से गुज़र रहे हों, ना किसी से बोलने का मन करता है ना ही किसी चीज़ की चहा होती है , बस अगर चहा होती है तो सिर्फ एक चीज़ की, किसी तरह यह कष्ट दूर हो जाए।
बिमारी एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जब हम बिस्तरे पे कष्ट मे पड़े हों तो एक आत्मिक अवलोकन का एक अच्छा मौका है । यही वह नाज़ुक़ समय है जिसमे हम बड़ी शिदत से ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। बस यही मौका ईश्वर हम इंसान को प्रदान करता है की हम आत्मिक चिंतन करें.
और यही चिंतन , आत्मिक चिंतन हमें हर बीमारी के बाद एक बेहतर इंसान बनाता है।
यह चिंतन हमें सिखाता है की हम इस पूरी सृष्टि से कितने करीब से जुड़े हैं।
जो ऑक्सीजन हमें दी गयी वह ऑक्सीजन इस धरती पर सब प्राणी चाहे वह अमरीकन हो या जापानी या पाकिस्तानी या हिन्दुस्तानी सब इसी ऑक्सीजन को ले रहे हैं।
जो खून चढ़ा वह भी किस का है पता नहीं , हिन्दू का है, मुसलमान का है या सिख या ईसाई का पता नहीं चलता क्यों की सब की रगों मे वही खून दौड़ रहा है। सिर्फ फ़र्क़ है ब्लड ग्रुप का तो ताजुब होता है की मेरे भाई का ब्लड ग्रुप दूसरा हो सकता है तो जिसे हम खून का रिश्ता कहते हैं वह क्या है और इंसानियत का रिश्ता कितना बड़ा है
हर चोट और बिमारी एक और महत्वपूर्ण ज्ञान देती है की शरीर सिर्फ नश्वर ही नहीं अपितु उसमें अपने आप को रिपेयर करने की असीमित क्षमता है , देखने मे आया है की ब्रेन सेल्स भी अगर डैमेज हो जाएँ तो नए भी उत्पन हो जाते हैं. यह रिपेयर करने की कोशिश को कई बार दवाई से बल मिलता है तो कई बार योग या excercise से और कभी फिजियो थेरेपी से पर वास्तविकता यह है की शरीर मे यह INHERENT क़ाबलियत है अपने आप को रिपेयर करने की।
हर व्यक्ति जब इस धरती पे ६० वर्ष के करीब पूरा कर लेता है तब उसने अपने जीवन में कई संघर्ष झेले होते हैं और ना जाने कितनी ही छोटी बड़ी बीमारियों से लड़ा होता है या अपने कई करीबियों को दुनिया से रुखसत होते हुए देखा होता है।
अगर उस व्यक्ति ने हर उस चैलेंज और हर उस बिमारी के दौरान या पड़ाव पर आत्मिक चिंतन किया हो तो वह
समाज को - वह समझ , वह ज्ञान दे सकता है जो की कम उम्र के जवान लोगों के पास नहीं होता है। क्यों की उन्होने अभी जीवन के वह सारे पड़ाव नहीं लांघे हैं , उन्होंने अभी जीवन के वह सारे चैलेंजेज फेस नहीं किये हैं।
सब्र एक ऐसा गुण है जो एक जवान मे नहीं होता है बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा की - सब्र का ना होना ही जवानी की निशानी है और स्ट्रेस ( STRESS) का कारण भी , यह उत्तेजना , यह अधीरता हमें अक्सर सड़क पे, दफ्तरों मे दिखाई देती है और घर के बड़े बुजुर्ग यही कहते हुए सुने जाते हैं बेटा थोड़ी तसली रख सब ठीक हो जाएगा।
परिवार को और समाज को भी इन बड़े बुजुर्गों से यह उम्मीद रहती है की वह सब को ठीक रहा दिखाएं , एक ऐसे समाज की रचना मे सहयोग करें जहाँ प्रेम हो, सामजस्य हो , नफरत न हो , ईर्ष्या न हो। लेकिन जिस समाज में खुद बड़े बुज़ुर्ग ही घृणा , नफरत को बढ़ावा देते हों तो फिर उस समाज को कौन रहा दिखायेगा।
कृष्णजी ने अध्याय २ श्लोक ३७ मे बोला
"हे अर्जुन तू अगर युद्ध करेगा और जीतेगा तू इस धरती पे राज्य करेगा और अगर मृत्यु को प्राप्त होगा तो भी मुझ (स्वर्ग) को ही प्राप्त होगा इस लिए तू उठ और युद्ध कर"।
परन्तु कृषणजी दूर दर्शी थे वह जानते थे की इस श्लोक से कितना विनाश हो सकता है इस लिए अगले ही श्लोकों मे बोले ; तू स्थिर बुद्धि वाला योगी बन - न किसी से द्वेष, न इर्षा , ना बदले की भावना ,अहिंसा का पालन कर और जय- पराजय , लाभ- हानि और सुख दुःख को सामान समझकर उसके बाद युद्ध कर। ऐसा करने से तू कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाएगा और तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।
यही सार है पहिले गीता का अर्जुन बनो फिर महाभारत का।
हम मे से बहुत सारे लोग जो आज अपनी ३-४ थी इन्निंग्स मे है और ६० साल की उम्र पार कर चुके हैं , अगर अब भी समाज मे घृणा , नफरत , इर्षा फैलाने में पुर ज़ोर योगदान दे रहे हैं तो फिर भगवन भी हमसे पूछेंगे की बेटा इतना लम्बा ज्ञान दे कर आया था, तूने भगवत गीता से क्या सीखा। इस ज़िंदगी के सफर से क्या सीखा ?, तू तो अपने जीवन के अंतिम पड़ाव मे भी इर्षा, घृणा , नफरत को बढ़ावा दे रहा था। गीता का पाठ समझे बिना ही महाभारत मे उतर गया.
कमाल की बात है की यह सारे गुण धीरे धीरे उम्र के साथ और इस ज़िंदगी के सफर मे सीखते जाते हैं , इसी लिए कहा जाता है न बुज़ुर्ग भी तो बच्चे का स्वरुप होते हैं।
Ultimately in God’s House what will count is What We stood for in Life ; Hatred or Love. Peace or Violence. Justice or Injustice. Fairness or Unfairness, Deceit or Integrity and Not Whether we were a Muslim or a Hindu , A Sikh or a Christian.